Sunday, 24 July 2016

एक घर..

वो जो एक घर था
अपने हिस्से का
जो बना नहीं कभी वैसा
जैसा की तुम्हारा मेरा वादा था
जिसकी आंगन में
ख़्वाब उड़ने थे,
वो एक घर, जो कौंध जाता था
तुम्हारी बातों की रौशनी में अक्सर
हाँ, वही घर की जिसकी हसरत में
रात कोयल सी हमने काटी थी..

देखो ना, घर तो नहीं बना
लेकिन,
रात कालिख सी लिपटी रहती है
दिन दरिया से बहते रहते हैं...