Wednesday, 27 April 2016

एक ख़्वाब वो भी

आसमां की तरफ जो उछाला था
हँसके एक शाम कोई ख़्वाब हमने
वही बड़े जतन से जिसे रंग आये थे
सबसे चटकीले लाल-नीले से
जिसकी पैरहन में जड़े थे
ख़ुशियों वाले आँसू कुछ,
किनारों पे जिसकी टाँक दी थी
हमने आँखे अपनी..
आज जब रातों के शामियाने में
उदासी चाँदनी की तरह फैली है
वक्त की नब्ज जरा मद्धम हैं
हवा की साँस जैसे सीली है..
और रूह के तुम्बे से
सन्नाटा सा बजता है
तो सुनो वो ख़्वाब ले आओ
आसमां चुपके से यही कहता है..

छोटी सी इस कविता में सवाल भी हैं और उम्मीद भी

पता है मुझे 
कविता से 
कमसकम मेरी कविता से 
न निज़ाम बदलता है
न प्रेमिका मानती है
और न ही बादल आते हैं.
बहेलिया नहीं बदलता अपना मन
कुल्हाड़े लिए हाथ नहीं रुकते
कोई इंक़िलाब नहीं आता इन शब्दों से ..
फिर भी
ख़ुद को ज़िंदा रखने के लिए
ज़िंदा दिखने के लिए
लिखता हूँ
क्या पता
अगर ज़िंदा रह गया तो
प्रेम, बारिश, और इंक़िलाब
सब आ जाये किसी दिन.

Sunday, 24 April 2016

मेरी कलम से ..

अभी
मेरे शब्द हैं मेरे पास
जिनमें भाव हैं और अर्थ भी 
इनमें संदर्भ नहीं हैं
मैं लिख जरूर देता हूँ
प्यार,आसमान,मुस्कान और चाँद
लेकिन
तुमसे अलग रहकर
वे खड़े नहीं रहते
संदर्भ को मैं
नींव मानता हूँ
हम दोनों की,
कविता की
मैं तुम्हारे प्यार को
सात आसमान कह देता हूँ
तुम्हारी मुस्कान
बन उठता है चाँद
तो शब्दों के अर्थ भी
पिघल जाते हैं
नहीं पिघलता है तो
बस तुम्हारा मन ....
तुम्हारा मन
मेरे शब्दों का संदर्भ है
आलंबन है भावों का
और आश्रय मेरा ..
अब इसे ठीक उसी तरह देखो
जैसी कि यह दशा है
तो रंग के भंग हो जाने की टीस
तुम्हें भी महसूस होगी ...

Monday, 4 April 2016

घर

वो जो एक घर था
अपने हिस्से का
जो बना नहीं कभी वैसा
जैसा की तुम्हारा मेरा वादा था
जिसकी आंगन में 
ख़्वाब उड़ने थे,
वो एक घर, जो कौंध जाता था
तुम्हारी बातों की रौशनी में अक्सर
हाँ, वही घर की जिसकी हसरत में
रात कोयल सी हमने काटी थी..
देखो ना, घर तो नहीं बना
लेकिन, रात कालिख सी लिपटी रहती है
दिन दरिया से बहते रहते हैं...

Saturday, 2 April 2016

ये बड़े अजीब दिन

ये बड़े अजीब दिन हैं बड़े मायूस से,
बदहवास से बहके हुए बेकार से दिन
सूखते कंठ की तरह सूखती उम्मीदों के
जीभ पर रखे हुए जलते हुए अंगार से दिन
आंसुओं की सूखती-बहती लकीरों से
गालों पर बनते-रुकते गर्द-गुबार से दिन
सुबह जो बात रह गयी थी अधूरी आज
कभी न पूरा होने वाले इंतज़ार के दिन
काँपते हाथों में मुर्दा हुए अरमानों की लाश,
खून की गंध भरे बेवाओं के चीत्कार से दिन
सहमे हुए ठहरे हुए गूंगे हुए बहरे हुए
तवे की ताप भरे जूड़ी के बुखार से दिन
हरेक आहट में मातम है हरेक मंजर वीराना है
किसी अच्छी खबर की आसरे में तलबगार से दिन
वो हँसी, वो कहकहे वो शोर हुल्लड़ का
कहाँ गए किधर छूटे वो गुलज़ार से दिन...
(कोलकाता के लिए)