ये बड़े अजीब दिन हैं बड़े मायूस से,
बदहवास से बहके हुए बेकार से दिन
बदहवास से बहके हुए बेकार से दिन
सूखते कंठ की तरह सूखती उम्मीदों के
जीभ पर रखे हुए जलते हुए अंगार से दिन
जीभ पर रखे हुए जलते हुए अंगार से दिन
आंसुओं की सूखती-बहती लकीरों से
गालों पर बनते-रुकते गर्द-गुबार से दिन
गालों पर बनते-रुकते गर्द-गुबार से दिन
सुबह जो बात रह गयी थी अधूरी आज
कभी न पूरा होने वाले इंतज़ार के दिन
कभी न पूरा होने वाले इंतज़ार के दिन
काँपते हाथों में मुर्दा हुए अरमानों की लाश,
खून की गंध भरे बेवाओं के चीत्कार से दिन
खून की गंध भरे बेवाओं के चीत्कार से दिन
सहमे हुए ठहरे हुए गूंगे हुए बहरे हुए
तवे की ताप भरे जूड़ी के बुखार से दिन
तवे की ताप भरे जूड़ी के बुखार से दिन
हरेक आहट में मातम है हरेक मंजर वीराना है
किसी अच्छी खबर की आसरे में तलबगार से दिन
किसी अच्छी खबर की आसरे में तलबगार से दिन
वो हँसी, वो कहकहे वो शोर हुल्लड़ का
कहाँ गए किधर छूटे वो गुलज़ार से दिन...
कहाँ गए किधर छूटे वो गुलज़ार से दिन...
(कोलकाता के लिए) 
No comments:
Post a Comment