Monday, 4 April 2016

घर

वो जो एक घर था
अपने हिस्से का
जो बना नहीं कभी वैसा
जैसा की तुम्हारा मेरा वादा था
जिसकी आंगन में 
ख़्वाब उड़ने थे,
वो एक घर, जो कौंध जाता था
तुम्हारी बातों की रौशनी में अक्सर
हाँ, वही घर की जिसकी हसरत में
रात कोयल सी हमने काटी थी..
देखो ना, घर तो नहीं बना
लेकिन, रात कालिख सी लिपटी रहती है
दिन दरिया से बहते रहते हैं...

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